एक दिन पाठ के बीच में एक शिष्य ने अपने गुरु से प्रश्न किया –
👉 “यदि भगवान भोग खाते हैं, तो वह वस्तु समाप्त क्यों नहीं हो जाती?
और यदि नहीं खाते, तो फिर भोग लगाने का क्या लाभ?”
गुरु ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया और पहले की तरह पाठ पढ़ाते रहे।
उस दिन पाठ के अंत में उन्होंने यह श्लोक पढ़ाया –
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
📖 फिर गुरु ने सभी शिष्यों से कहा कि इसे याद कर लो।
एक घंटे बाद उन्होंने उसी शिष्य से पूछा – “क्या श्लोक याद हुआ?”
शिष्य ने पूरा श्लोक सुना दिया।
फिर भी गुरु ने सिर हिलाकर कहा – “नहीं।”
शिष्य ने कहा – “गुरुजी, आप चाहें तो पुस्तक देख लें, मैंने बिल्कुल सही सुनाया है।”
गुरु मुस्कुराए और बोले –
“यह श्लोक तो पुस्तक में ही लिखा है, तो फिर तुम्हारे दिमाग में कैसे चला गया?
➡️ पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है।
➡️ जब तुमने उसे पढ़ा, तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे मन और मस्तिष्क में प्रवेश कर गया।
➡️ अब वह तुम्हारे भीतर भी है, और पुस्तक में भी वैसा ही है।
ठीक उसी प्रकार –
भगवान भी भोग को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं।
भोग का स्थूल रूप जस का तस रहता है, जिसे हम बाद में प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
यही कारण है कि प्रसाद को दिव्य और पवित्र माना जाता है।
🙏 जय श्रीराम 🙏
No comments:
Post a Comment