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24 January 2008

साहिब तेरी साहिबी सब घट रही समाय

मैं कौन हूं, मेरा अस्तित्व क्या है, ये संसार क्या है, ईश्वर क्या है-
ऐसे अनेक प्रश्न विचारवानव्यक्ति को नाना प्रकार से उद्विग्न और उद्वेलित करते हैं। भारतीय चिंतन धारा में इन प्रश्नों पर अनेक प्रकार से विचार हुआ है। शंकराचार्य ने तो कहा भी है कि ऐसे प्रश्नों पर विवेकशील पुरुष को अवश्य विचार करना चाहिए।

मैं कौन हूं?
इस प्रश्न पर चर्चा करते हुए शंकराचार्य कहते हैं मैं मनुष्य, देव, यक्ष आदि कुछ भी नहीं हूं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्णवालाभी नहीं हूं तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी भी नहीं हूं। यह सभी तो देह का धर्म है और मैं देह से भिन्न बोधरूपयानी ज्ञान स्वरूप आत्मा हूं। तो फिर मेरा अस्तित्व क्या है? इस प्रश्न का उत्तर शंकराचार्य ने कुछ इस प्रकार दिया है मैं देह नहीं हूं, मैं ज्ञानेन्द्रिय या कर्मेन्द्रियभी नहीं हूं। मैं अहंकार, पंचप्राण या बुद्धि आदि अन्त:करण चतुष्टय भी नहीं हूं, मैं तो केवल नित्य और शिवस्वरूपआत्मा हूं। आत्मा के संबंध में तो अनेक बार विचार हुआ है। गीता में इसके अविनाशी स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है कि आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेती है और न ही मरती है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी यह नष्ट नहीं होती। युद्ध क्षेत्र में अवसादग्रस्तअर्जुन की शंकाओं का निवारण करते हुए श्री कृष्ण ने कहा था कि न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे। न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

अर्थात देह के न रहने पर भी आत्मा रहती है। देह को नष्ट होने से बचाया नहीं जा सकता और आत्मा को नष्ट किया नहीं जा सकता। इन दोनों का संयोग ही जीवन के रूप में प्रस्फुटित होता है तो फिर हम जीवन की छोटी सी अवधि में ऐसे कार्य क्यों करें कि जीवन ही लांछित हो जाए! आत्मा सर्वव्यापक शांत-शीतल, सुख-दु:ख और विकार से रहित है, परंतु शरीर में तो विकार है। यही विकार हमें जगत में भी दिखाई देते हैं और अशांति उत्पन्न करते हैं।
यही कारण है कि ऋषियों द्वारा इन विकारों से जगत की मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की गई है-

सर्वे भवन्तु सुखिन:सर्वे सन्तुनिरामया:।सर्वे भद्राणिपश्यन्तुमा कश्चिद्दु:खभागभवेत॥

अर्थात् सब सुखी हों, निरामय हों, सभी का कल्याण हो, दु:ख का भाग किसी को न मिले। अब प्रश्न उठता है कि वो कौन सी सत्ता है जो अदृश्य रहकर भी दृश्य जगत का संचालन करती है? कबीर ने अत्यंत सरल भाव से इसका उत्तर देते हुए कहा है साहिब तेरी साहिबी,सब घट रही समाय। साहिब का यही अंश जीवन और जगत को चलायमान रखता है। उसे रचता, नियंत्रित करता है और उसका विध्वंस करता है। पर यह साहिब कौन है जो बिनु पद चलैसुनैबिनुकाना। कर बिनुकर्म करैबिधिनाना।। कबीर ने माना है कि यह निर्गुण और निराकार ब्रह्म ही संसार का खेवनहार है। पर इसे निराकार मान लेने से मन कैसे स्थिर हो-यह एक विकट प्रश्न है। आराधना में साहिब का चिंतन किस प्रकार किया जाए। श्रीमद्भागवत में इस शंका का निवारण किया गया है। श्रीकृष्ण सब आत्माओं के आत्मा-परमात्मा हैं। केवल जगत कल्याण के लिए ही योग माया के आश्रय से वे रूपधारीकी तरह दिखते हैं।

अर्थात् निर्गुण होते हुए भी ब्रह्म, सगुण रूप में उत्पन्न होता है। यही सगुण रूप जब पुन:परब्रह्म के विराट स्वरूप में विलीन हो जाता है तो पुन:निराकार हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी सगुण और निर्गुण के मतांतर को अस्वीकाराहै। इसलिए स्वरूप के आधार पर उपासना भेद से भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्योंकि कोई भी साकार स्वरूप अंतत:उसके विराट रूप में विलीन होकर निराकार ही हो जाता है। भारतीय चिंतन पद्धति में नाम के जाप को ईश्वर की आराधना का एक सर्वमान्य एवं सरल उपाय माना गया है। कठोपनिषदमें तो सगुण और निर्गुण की शंका का समाधान अत्यंत विचारपूर्वक किया गया है ऊंकार अक्षर ही सगुण ब्रह्म है, यह अक्षर ही निर्गुण परमब्रह्मभी है। इसी प्रकार गीता में भी ॐ की महत्ता प्रतिपादित हुई है। धु्रव जी के वन जाते समय नारद जी ने भी उन्हें ॐ नमोभगवतेवासुदेवायमंत्र का जप और ध्यान करने का ही आदेश दिया था। राम-नाम की महिमा तो सर्वविदित है ही। विद्वानों का मत है कि ब्रह्म के नाम में उसके सभी गुण उसी प्रकार छुपे रहते हैं जैसे बीज में वृक्ष। इसीलिए नाम-जाप का महत्व सदा से बना हुआ है। वास्तव में जीवन और जगत से जुडा कोई भी प्रश्न हमारी प्राचीन चिंतनधारा में अनुत्तरित नहीं है। हमारी शंकाओं का निवारण हमारे प्राचीन ग्रंथों में विस्तार से किया गया है।

पीछे देखकर हम आगे बढ सकते हैं। यही इतिहास-दृष्टि भी है। परंतु इसके विपरीत, भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव में आज हमारा समाज अपनी चिंतन परंपरा से विमुख होकर विकारों से भर गया है। विकारी मनुष्यों के बढते महत्व की होड में विचारवानव्यक्ति की आस्था भी डगमगा रही है। हम विकार के विनाशी मकडजाल में फंस चुके हैं। इस जाल से मुक्ति का एक ही उपाय है कि हम एक बार फिर भारतीय चिंतनधारा के शाश्वत प्रश्नों से साक्षात्कार करें और जीवन और जगत के सत्य को समझने का प्रयास करें। कबीर ने अत्यंत सरल स्वभाव से इस जगत के रहस्य को सुलझाते हुए कहा है कि यह संसार कागज की पुडिया के समान है, जिस पर पानी की बूंद पडते ही सब कुछ समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमें जो भी करना है पानी की बूंद पडने से पहले ही करना होगा।